केशवानंद भारती केस: भारतीय संविधान का ऐतिहासिक फैसला

केशवानंद भारती केस: भारतीय संविधान का ऐतिहासिक फैसला

भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में "केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य" (1973) एक ऐसा मुकदमा है, जिसने संविधान की व्याख्या और लोकतंत्र की सुरक्षा के लिए एक नया मानदंड स्थापित किया। यह फैसला भारतीय संविधान के सबसे महत्वपूर्ण निर्णयों में से एक माना जाता है, जिसने "मूल संरचना सिद्धांत" (Basic Structure Doctrine) की नींव रखी। आइए इस ऐतिहासिक केस को विस्तार से समझते हैं।

केशवानंद भारती: कौन थे वे?

केशवानंद भारती एक हिंदू संत और केरल के एडनिर मठ (Edneer Mutt, Kasaragod, Kerala) के प्रमुख थे। यह मठ धार्मिक, सामाजिक और शैक्षणिक गतिविधियों में सक्रिय था। जब केरल सरकार ने "केरल भूमि सुधार अधिनियम, 1963" (Kerala Land Reforms Act, 1963) लागू किया, तो इस कानून के तहत मठ की कई जमीनें सरकार के अधिकार में आ गईं। इसे मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के रूप में देखते हुए, केशवानंद भारती ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की।

मामले की मुख्य संवैधानिक बहस

इस केस में कुछ महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रश्न उठाए गए:

  1. क्या संसद को संविधान के किसी भी भाग में संशोधन करने की असीमित शक्ति प्राप्त है?

  2. क्या संसद मौलिक अधिकारों को हटा सकती है या उनमें बदलाव कर सकती है?

याचिकाकर्ता ने निम्नलिखित अनुच्छेदों के उल्लंघन का दावा किया:

  • अनुच्छेद 14 - समानता का अधिकार

  • अनुच्छेद 19(1)(f) - संपत्ति रखने का अधिकार (अब हटाया जा चुका है)

  • अनुच्छेद 25 - धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार

  • अनुच्छेद 26 - धार्मिक संस्थाओं को अपनी संपत्ति प्रबंधित करने का अधिकार

सुनवाई और ऐतिहासिक संविधान पीठ

इस केस की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की अब तक की सबसे बड़ी 13 न्यायाधीशों की संविधान पीठ (Constitution Bench) द्वारा की गई। सुनवाई 31 अक्टूबर 1972 से शुरू होकर 68 दिनों तक चली।

न्यायालय में बहस के दौरान, प्रसिद्ध अधिवक्ता नानी पालकीवाला याचिकाकर्ता की ओर से पेश हुए, जबकि भारत सरकार की ओर से एच.एम. सेवा ईयर ने पैरवी की।

सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

24 अप्रैल 1973 को दिए गए इस फैसले में 7:6 के बहुमत से न्यायालय ने कहा कि संसद संविधान में संशोधन कर सकती है, लेकिन उसकी "मूल संरचना" (Basic Structure) को नहीं बदल सकती।

सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि संविधान की "मूल संरचना" में निम्नलिखित तत्व शामिल हैं:

  • लोकतंत्र और कानून का शासन

  • मौलिक अधिकार

  • न्यायपालिका की स्वतंत्रता

  • भारत की संप्रभुता और धर्मनिरपेक्षता

गोलकनाथ केस (1967) को ओवररूल किया गया

1967 में गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती। लेकिन केशवानंद भारती केस में इस फैसले को पलट दिया गया और "मूल संरचना सिद्धांत" को स्थापित किया गया।

इस फैसले के दूरगामी प्रभाव

  1. भारतीय लोकतंत्र की रक्षा: कोई भी सरकार संविधान को पूरी तरह बदलकर अपनी मनमर्जी नहीं चला सकती।

  2. मौलिक अधिकारों की सुरक्षा: नागरिकों के मौलिक अधिकार अब किसी भी सरकार द्वारा समाप्त नहीं किए जा सकते।

  3. संविधान की स्थिरता: संविधान में बार-बार बदलाव की प्रवृत्ति पर रोक लगी।

  4. न्यायपालिका की स्वतंत्रता: न्यायपालिका को सरकार के हस्तक्षेप से बचाने का काम किया गया।

  5. राजनीतिक संतुलन: इस फैसले ने सरकार और विपक्ष के बीच संतुलन बनाए रखा।

  6. 42वें और 44वें संविधान संशोधन: 1976 में आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी सरकार ने 42वें संशोधन द्वारा संविधान में व्यापक परिवर्तन किए, लेकिन 1978 में 44वें संशोधन द्वारा इनमें से कई प्रावधान हटा दिए गए।

  7. भविष्य के फैसलों पर प्रभाव:

    • 1980 का मिनर्वा मिल्स केस - सुप्रीम कोर्ट ने "मूल संरचना सिद्धांत" को दोहराया।

    • 1981 का वामन राव केस - सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 24 अप्रैल 1973 के बाद किए गए सभी संशोधन "मूल संरचना सिद्धांत" के तहत जांचे जाएंगे।

वैश्विक प्रभाव

केशवानंद भारती केस केवल भारत तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इसे दुनिया भर के संवैधानिक विशेषज्ञों द्वारा अध्ययन किया गया। यह निर्णय लोकतंत्र और संवैधानिक स्थिरता के लिए एक मिसाल बन गया।

निष्कर्ष

केशवानंद भारती केस भारतीय संविधान के इतिहास में एक मील का पत्थर है। इस फैसले ने यह सुनिश्चित किया कि संविधान जनता के लिए बना है और कोई भी सरकार इसे अपनी मर्जी से नहीं बदल सकती। यह निर्णय संविधान की स्थिरता और लोकतंत्र की सुरक्षा का प्रतीक बना हुआ है।

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